• May 20, 2021

ग़ज़ल

ग़ज़ल

ग़ज़ल 150 150 Ramesh Kamal
  1. बहरे-कामिल मुसम्मन सालिम

मुतफ़ाइलुन मुतफ़ाइलुन मुतफ़ाइलुन मुतफ़ाइलुन

ग़ज़ल

वो जो घर था, तुम से ही था वो घर, तुम्हें याद हो कि न याद हो

तुम्हें ढूंढती रही हर नज़र, तुम्हें याद हो कि न याद हो

 

जो बढीं कभी ये उदासियाँ, तुम्हें देखते ही पलट गयीं

थे तुम्हीं से खुश मिरे बामो-दर,  तुम्हें याद हो कि न याद हो

 

जो क़बा थी दिल पे निखर गयी, जो रिदा थी तन पे सँवर गयी

तुम्हीं थे खुमारे-दिलो-नज़र, तुम्हें याद हो कि न याद हो

 

तुम्हीं ज़िन्दगी की चढ़ाव थे तुम्हीं ज़िन्दगी के पड़ाव थे

था तुम्हारा जल्वा ही कारगर, तुम्हें याद हो कि न याद हो

 

मुझे लग्ज़िशों पे गुमान था, मेरी ज़द में सारा जहान  था

मेरे साथ थे तुम्हीं हमसफ़र तुम्हें याद हो कि न याद हो

 

न फिजाओं में है चमक दमक न हवाओं में कोई ताज़गी

था वक़ार तुमसे ही जल्वागर तुम्हें याद हो कि न याद हो

 

वही ज़हर में सना आसमां, वही इस ज़मीन की मुश्किलें

तुम्हीं इक थे राहते-दिल मगर तुम्हें याद हो कि न याद हो

 

तुम्हें  मैं अगर न मना सका कि जो रूठने पे ही आए तुम

मुझे याद है मेरा खौफ़-डर तुम्हें याद हो कि न याद हो

 

 

तुम्हीं दिल के चैन क़रार थे, कि तुम्हीं तो जाने-बहार थे

अभी कल की बात है सब मगर तुम्हें याद हो कि न याद हो

 

कभी झेंप जाते थे उस घड़ी, जो लगा के चेहरे पे टकटकी

तुम्हें देखता था मैं आँख भर तुम्हें याद हो कि न याद हो

 

मिरी इल्तिज़ा वो गुजारिशें वो कँवल की अदना सी ख्वाहिशें

चले मस्तियों के डगर डगर तुम्हें याद हो कि न याद हो

 

रमेश ‘कँवल’   

8 मार्च,2021