- बहरे-कामिल मुसम्मन सालिम
मुतफ़ाइलुन मुतफ़ाइलुन मुतफ़ाइलुन मुतफ़ाइलुन
ग़ज़ल
वो जो घर था, तुम से ही था वो घर, तुम्हें याद हो कि न याद हो
तुम्हें ढूंढती रही हर नज़र, तुम्हें याद हो कि न याद हो
जो बढीं कभी ये उदासियाँ, तुम्हें देखते ही पलट गयीं
थे तुम्हीं से खुश मिरे बामो-दर, तुम्हें याद हो कि न याद हो
जो क़बा थी दिल पे निखर गयी, जो रिदा थी तन पे सँवर गयी
तुम्हीं थे खुमारे-दिलो-नज़र, तुम्हें याद हो कि न याद हो
तुम्हीं ज़िन्दगी की चढ़ाव थे तुम्हीं ज़िन्दगी के पड़ाव थे
था तुम्हारा जल्वा ही कारगर, तुम्हें याद हो कि न याद हो
मुझे लग्ज़िशों पे गुमान था, मेरी ज़द में सारा जहान था
मेरे साथ थे तुम्हीं हमसफ़र तुम्हें याद हो कि न याद हो
न फिजाओं में है चमक दमक न हवाओं में कोई ताज़गी
था वक़ार तुमसे ही जल्वागर तुम्हें याद हो कि न याद हो
वही ज़हर में सना आसमां, वही इस ज़मीन की मुश्किलें
तुम्हीं इक थे राहते-दिल मगर तुम्हें याद हो कि न याद हो
तुम्हें मैं अगर न मना सका कि जो रूठने पे ही आए तुम
मुझे याद है मेरा खौफ़-डर तुम्हें याद हो कि न याद हो
तुम्हीं दिल के चैन क़रार थे, कि तुम्हीं तो जाने-बहार थे
अभी कल की बात है सब मगर तुम्हें याद हो कि न याद हो
कभी झेंप जाते थे उस घड़ी, जो लगा के चेहरे पे टकटकी
तुम्हें देखता था मैं आँख भर तुम्हें याद हो कि न याद हो
मिरी इल्तिज़ा वो गुजारिशें वो कँवल की अदना सी ख्वाहिशें
चले मस्तियों के डगर डगर तुम्हें याद हो कि न याद हो
रमेश ‘कँवल’
8 मार्च,2021