• May 20, 2021

ग़ज़ल

ग़ज़ल

ग़ज़ल 150 150 Ramesh Kamal

इस दौर के भारत का  अंदाज़ अनूठा है

अब रिश्ता अदालत का इंसाफ़ से टूटा है

 

जो बात नहीं शामिल क़ानूनी मसौदे में

उस पर ही सियासत ने इस देश को लूटा है

 

मस्ती थी, बहलते थे, सुहबत के उजालों में

अब कैसे बताएं हम क्यूं साथ वो छूटा है

 

यौवन के दरीचों पर इतराते हुए बोले

अब फिर न कभी कहना इस शोख़ ने लूटा है

 

उस हुस्न सिफ़त दिलबर की ऐसी तमन्ना थी

जब ज़ुल्फ़ संवारी है इक आईना टूटा है

 

अफ़्वाहों की शहज़ादी कहती है अदालत में

मैं वाक़ई झूटी हूं ,सब वाक़िआ झूटा है

 

अब सोचिए मंदिर या मस्जिद में कँवल जाकर

चौराहे पे आकर क्यों सर आपका फ़ूटा है

 

रमेशकंवल        رمیش کنول 

सृजन :16 जनवरी,2020

अक़ीदत के फूल  : एनीबुक प्रकाशन के पृष्ठ 212 पर प्रकाशित

30 ग़ज़लगो : 300 ग़ज़लें , एनीबुक प्रकाशन के पृष्ठ 129  पर प्रकाशित