ग़ज़ल — रमेश ‘कँवल’
मसअला मुल्क का हल हो ये कहाँ मुमकिन है घर ग़रीबों का महल हो ये कहाँ मुमकिन है शोख़ अदाओं का न छल हो ये कहाँ मुमकिन है उनके…
read moreमसअला मुल्क का हल हो ये कहाँ मुमकिन है घर ग़रीबों का महल हो ये कहाँ मुमकिन है शोख़ अदाओं का न छल हो ये कहाँ मुमकिन है उनके…
read moreरिश्ते निभाएं कैसे दिलों में है बरहमी मय्यत निहारने की इजाज़त नहीं मिली मरघट सी खामुशी है हर इक शहर में अभी बाहर वबा का खौफ़ है कमरों में…
read moreमजदूरों के लिए कोई लारी न आएगी बस रेल जैसी कोई सवारी न आएगी कुछ फ़ासला हो, हाथ मिलाएं नहीं कभी कोरोना जैसी कोई बीमारी न आएगी शमसान…
read moreकरोना ने जमकर मचायी तबाही इलाही, इलाही, इलाही, इलाही सभी को है फ़ुर्सत मिलन पे मनाही है बेचैन मन बंद है आवाजाही मिली महफ़िलों में उसे वाहवाही तरन्नुम…
read moreउजाले बांटने फिर चल पड़े हैं हमारे दर पे नाबीना खड़े हैं ये परदे रेशमी तो हैं यक़ीनन मेरे सपनों के इन में चीथड़े हैं हवाए-ताज़गी ले आयेंगे…
read moreफ़ा इ ला तुन म फ़ा इ लुन फ़े लुन रेत में कोई धार पानी की है कहानी सराए-फ़ानी की खुदकशी के घने अँधेरों में ज़िन्दा रहने की तर्जुमानी…
read moreअन्दर इक तूफ़ान सतह पर ख़ामोशी का पहरा था आँखों में फ़नकारी थी मासूम सा उनका चेहरा था काँटों की हर एक चुभन मंज़ूर थी शातिर नज़रों को जब…
read moreफ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलुन डूबने वालों में उसका नाम है इक शिनावर का अजब अंजाम है फाँकता था गर्द वह जिस राह की वह सड़क उस अजनबी के नाम…
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