इस दौर के भारत का अंदाज़ अनूठा है
अब रिश्ता अदालत का इंसाफ़ से टूटा है
जो बात नहीं शामिल क़ानूनी मसौदे में
उस पर ही सियासत ने इस देश को लूटा है
मस्ती थी, बहलते थे, सुहबत के उजालों में
अब कैसे बताएं हम क्यूं साथ वो छूटा है
यौवन के दरीचों पर इतराते हुए बोले
अब फिर न कभी कहना इस शोख़ ने लूटा है
उस हुस्न सिफ़त दिलबर की ऐसी तमन्ना थी
‘जब ज़ुल्फ़ संवारी है इक आईना टूटा है‘
अफ़्वाहों की शहज़ादी कहती है अदालत में
मैं वाक़ई झूटी हूं ,सब वाक़िआ झूटा है
अब सोचिए मंदिर या मस्जिद में ‘कँवल‘ जाकर
चौराहे पे आकर क्यों सर आपका फ़ूटा है
रमेश ‘कंवल’ رمیش کنول
16 जनवरी,2020
अक़ीदत के फूल : पृष्ठ 212