मसअला मुल्क का हल हो ये कहाँ मुमकिन है
घर ग़रीबों का महल हो ये कहाँ मुमकिन है
शोख़ अदाओं का न छल हो ये कहाँ मुमकिन है
उनके माथे पे न बल हो ये कहाँ मुमकिन है
मुख्तलिफ़ राय के अफ़राद इकट्ठे न हों जब
खिलना लाज़िम न कँवल हो ये कहाँ मुमकिन है
अब हुकूमत है नयी, तोहफ़ा में गीता लीजे
गिफ्ट अब ताजमहल हो ये कहाँ मुमकिन है
एक से एक मिले मुल्क को रहबर अब तक
राहबर कोई ‘अटल’ हो ये कहाँ मुमकिन है
अब कहाँ कहते हैं इस दौर के उस्तादे-ग़ज़ल
मीर सी कोई ग़ज़ल हो ये कहाँ मुमकिन है
पेड़ पौधे ,न कोई छाँव, न बारिश,न घटा
रास्ते में कहीं नल हो ये कहाँ मुमकिन है
कर्म कीजे कि यही आपके वश में है ‘कँवल’
आपके हाथ में फल हो ये कहाँ मुमकिन है
सृजन : 19 मई 2019
अक़ीदत के फूल : एनी बुक प्रकाशन पृष्ठ
30 ग़ज़लगो : 300 ग़ज़लें एनी बुक प्रकाशन पृष्ठ : 131