तुम्हारे लफ़्ज़ों को भावनाओं की पालकी में बिठा रहा हूँ
दिले- हज़ीं में मची है हलचल मैं आँसुओं को छुपा रहा हूँ
तुम्हारी पलकें झुकी हुई हैं तुम्हारे लब थरथरा रहे हैं
तुम्हारी ठोड़ी को उँगलियों से मैं धीरे धीरे उठा रहा हूँ
तुम्हारी ख़ातिर ही की बग़ावत तुम्हें शिकायत है क्यूँ ज़ियादा
मैं भूल जाऊँ, न याद रक्खूँ, नसीहतें कब से पा रहा हूँ
बहुत दिनों की तलाश है ये जो रूबरू तुम हुए हो मुझसे
न दूसरा है कोई ज़मीं पर फ़लक की धड़कन सुना रहा हूँ
तुम्हें बना लूँ शरीके-जाँ मैं गुज़ारिशें कब से अंजुमन में
मैं कर रहा हूँ मगर इशारा तुम्हारा पुख्ता न पा रहा हूँ
पुलिस या नर्सों का भेष धरकर सफाई कर्मी या डॉक्टर बन
इलाज करते हैं राम सीता हैं बंद मंदिर दिखा रहा हूँ
‘कँवल’ मेरी अहलिया की ख़िदमत रखे है घर में मुझे सलामत
मैं लॉक डाउन की मस्तियों में लतीफ़ ग़ज़लें सुना रहा हूँ
रमेश ‘कँवल’
19 मई, 2020