अपनों के दरमियान सलामत नहीं रहे
दीवार-ओ-दर मकान सलामत नहीं रहे
नफ़रत की गर्द जम्अ निगाहों में रह गई
उल्फ़त के क़द्र-दान सलामत नहीं रहे
रौशन हैं आरज़ू के बहुत ज़ख़्म आज भी
ज़ख़्मों के कुछ निशान सलामत नहीं रहे
ऐसा नहीं कि सिर्फ़ यक़ीं दर-ब-दर हुआ
दिल के कई गुमान सलामत नहीं रहे
महफ़ूज़ बाम-ओ-दर हैं सदाक़त के आज भी
धोके के पानदान सलामत नहीं रहे
अपनों से अपने लहजे में बातों का है कमाल
कुछ शख़्स बद-ज़बान सलामत नहीं रहे
वो लोग बे-अदब थे ‘कँवल’ बे-ख़ुलूस थे
हम जैसे बे-ज़बान सलामत नहीं रहे