दिनांक 3 मई, 2022 को ऑनलाइन शामे-ग़ज़ल कार्यक्रम की रिपोर्टिंग
अक्षय तृतीया के शुभ अवसर पर दिनांक 3 मई,2022 को फेसबुक पर प्रणय गीत संध्या लाइव प्रसारित
वाणी वंदना – डा. सुनीता सिंंह ‘सुधा’,वाराणसी
हे शारदे ,वंदन नमन
विनती करो , स्वीकार माँ ।
शुचिता सदा ,उर में भरो
प्रज्ञा सुफल , शृंगार माँ ।।
श्वेतांबरा ,कर मति विमल
अंतर बहे ,धारा तरल ।
दे लक्ष्य अब ,पावन सकल
भर शक्ति रस ,हर भव गरल ।।
हो स्नेह की ,भाषा नयन
उर में भरो ,संस्कार माँ ।
हे शारदे ,वंदन नमन
विनती करो ,स्वीकार माँ ।।
अभिनव भरो ,चिंतन सदा
स्वर लय भरो ,पावन हृदय ।
सत्यम् शिवम ,शुचि सुंदरम
संपन्न कर अंतर् सदय।।
भर निरझरी ,संगीत की
वीणा करो ,झंकार माँ ।
हे शारदे ,वंदन नमन
विनती करो ,स्वीकार माँ ।।
हो लेखनी ,धर्मार्थ अब
बन सारथी , तू ज्ञान रथ
नित नव सृजन अनुदित करूँ
भागीरथी , दे नित्य पथ ।।
मन में सदा ,आलोक भर
कर शुभ्रता , संचार माँ ।
हे शारदे ,वंदन नमन
विनती करो ,स्वीकार माँ ।।
डा. सुनीता सिंंह ‘सुधा’
गीत – डॉ सीमा विजयवर्गीय, अलवर, राजस्थान
तू जो मेरे पास न होता
जीवन में उल्लास न होता
कुंज गली सूनी रह जाती
मुरली आख़िर क्या गा पाती
खोई -खोई रहती पायल
मधुबन में फिर रास न होता
सूखा-सूखा लगता सावन
कह पाता फिर क्या ये दरपन
धड़कन, तड़पन दिल खो देता
हर पल यूँ मधुमास न होता
मीरा क्यों मस्तानी होती
राधा क्यों दीवानी होती
सीता क्यों तपती आजीवन
जो तेरा अहसास न होता
दिल गुमसुम सा बैठा रहता
अपनी बातें किससे कहता
वीरानी सी लगती बस्ती
जग में कुछ भी ख़ास न होता
डॉ सीमा विजयवर्गीय
गीत – शुचि ‘भवि’,भिलाई
मेरे मनमंदिर में साजन,
बस तेरी ही प्रीत
साथ अगर हम हैं तो देखो,
जग को लेंगे जीत
लक्ष्य तुम्हारा मैं हूँ पहला
और मेरे हो तुम
जीवन के संतापों से हम
अंजाने और गुम
हमने अपने लिए बनाई,
नई नवेली रीत
मेरे मनमंदिर में साजन,
बस तेरी ही प्रीत
साथ अगर हम हैं तो देखो,
जग को लेंगे जीत
गुलशन गुलशन दिन थे देखो
थी फगुनाई रात
नयनों की नयनों से देखो
होंती सारी बात
प्रेम समर्पण कभी न जाने,
क्या होती है भीत
मेरे मनमंदिर में साजन,
बस तेरी ही प्रीत
साथ अगर हम हैं तो देखो,
जग को लेंगे जीत
मेरे जीवन वर्क को भरने
तू जो बने क़लम
पन्ना पन्ना बिछी रही मैं
त्यागे सारे भरम
राधा-मोहन सम हम ‘भवि’ हैं,
इक दूजे के मीत
मेरे मनमंदिर में साजन,
बस तेरी ही प्रीत
साथ अगर हम हैं तो देखो,
जग को लेंगे जीत
शुचि ‘भवि’,भिलाई
4 गीत – डॉ. कृष्णकुमार ‘नाज़’
मैं तुम्हारा हूँ
हो कठिन, चाहे सरल हो ज़िंदगानी का सफ़र
मैं तुम्हारा हूँ, तुम्हारा ही रहूँगा उम्रभर
अब विवशताएँ न ज़ंजीरें बनेंगी पाँव की
अब न होगी रोशनी फीकी हृदय के गाँव की
देखना, उल्लास का वातावरण होगा मुखर
खुल गए देखो समर्पण के सजीले द्वार भी
जगमगाते हैं उजालों की तरह अँधियार भी
सज गई है दूर तक सदभावनाओं की डगर
प्रार्थना को प्रेम का आधार भी करते चलें
कामनाओं का चलो श्रृंगार भी करते चलें
ख़ूबसूरत है हमारी कल्पनाओं का नगर
डॉ. कृष्णकुमार ‘नाज़’
5. पीयूष शर्मा,शाहजहांपुर
पास आओ तुम्हारे लिए प्राण ! मैं
आँसुओं से लिखूंगा कथा प्यार की
रिक्त हैं जब सभी सीपियों के हृदय
प्रेम मोती कहाँ से मिलेगा प्रिये
सूखते जब रहेंगे सरोवर यहाँ
तो कमल किस तरह से खिलेगा प्रिये
इस व्यथा से दुःखी है समूचा जहाँ
लाज कैसे बचाऊँ सदाचार की ।
रात गुमसुम हुई चाँद रोया बहुत
अनवरत जब मुझे तुम भुलाने लगे
चित्र धुंधला गए, सूर,रसखान के
प्रेम का नाम जब तुम मिटाने लगे
देह जूठी पड़ी,मौन हैं अब अधर
बात कैसे करूँ पूर्ण संसार की ।
स्वप्न विश्वास के, आँख में मर गए
किन्तु तुमसे प्रणय मैं निभाता रहा
हो न पाया हृदय कृष्ण मेरा मगर
मैं तुम्हें राधिका ही बुलाता रहा
भूल बैठे तुम्हीं पल मनोरम सभी
व्यर्थ है बात अब जीत की, हार की ।
पीयूष शर्मा
शाहजहाँपुर, (उ. प्र)
व्हाट्सऐप न.- 9260988451
6 डॉ सुनीता सिंह ‘सुधा ,वाराणसी
गीत
हे वसंत, मधुकर मधुकरियाँ करती आज किलोलें।
मंजरियों,पर मदनशलाका डाल -डाल पर बोलें।।
पीत वसन , ओढ़े है वसुधा गंधिल है अमराई ।
अंग-अंग , मधुरिम मादकता भरती है तरुणाई ।।
आशा की ,श्वेताभा विकसित अंतर्मन अकुलाए।
केशर के , अधरों पर चुंबन धर मधुकर इठलाए।।
चहक रही,है सरस सारिका मधुरस उपवन घोलें ।
मंजरियों,पर मदन शलाका डाल-डाल पर बोलें।।
कलिकाएँ, साँसों में उत्सुक लिए गाल लवनाई ।
सुमनों पर, बैठे हैं मधुकर कलिका है मुस्काई।।
गुलबहार ,चंपा जूही मन कलगी को भरमाएँ ।
चटक रंग , अब ओढ़ तितलियाँ उपवन में इतराएँ ।।
पुष्पाकर नित प्रकृति नायिका के घूँघट पट खोलें ।
मंजरियों, पर मदन शलाका डाल-डाल पर बोलें।।
मादकता , प्राकृतिक कलश भर लाई है अँगनाई ।
भोर रश्मि ,भावुक होकर अब बजा रही शहनाई ।।
साँझ प्रहर , सिंदूरी गंधिल बहती है पुरवाई ।।
नाच रही , कोकिल- कंठी ले भावों की तरुणाई ।।
वासंती, सुस्पर्श समीरण सुधा पात में डोलें।
मंजरियों,पर मदन शलाका डाल-डाल पर बोलें।।
“”””””””””””””””””””””
डा. सुनीता सिंह ‘सुधा’
वाराणसी
7 डॉ अरुण तिवारी गोपाल
मिलन का विश्वास अक्षयवट हुआ है ॰॰॰॰
दर्द पूरा गा रहा हूँ और आधा प्यार…
डूब जाते,गीत ही केवट हुआ है॰॰॰॰
अर्घ्य चाहों के लिए प्यासी नदी !
रूप में खुलकर नयन में जा मुदी !!
दो नयन जोगी जनम के, हेरते हैं द्वार…
प्रेम ही तो जोगियों का हठ हुआ है ॰॰॰
मिलन का विश्वास अक्षयवट हुआ है
निभ कहाँ पाये तुम्हारे दो वचन!
डबडबाये फिर नहाये दो नयन !!
बिन पढे जो पत्र लौटाया,बरोठे पार…
रोज आँखे डूबने का तट हुआ है ॰॰॰॰
मिलन का विश्वास अक्षयवट हुआ है
दाग तुमने,जिन्दगी,की बाँसुरी!
भर नयन हर द्वार वो गाती फिरी !!
सौ तरह ,दुनिया करे,सौ सौ जतन….
मिलन का विश्वास अक्षयवट हुआ है ॰
दिनांक 20 मई, 2022 को ऑनलाइन शामे-ग़ज़ल कार्यक्रम की रिपोर्टिंग
हफ़ीज़ बनारसी के 89 वें जन्मदिन पर दिनांक 20 मई,2022 को शाम 7 बजे बज़्मे-हफ़ीज़ बनारसी,पटना ने फ़ेसबुक के लाइव पटल पर एक ऑनलाइन शामे-ग़ज़ल कार्यक्रम का आयोजन किया |
इसमें डॉ कृष्ण कुमार ‘नाज़’,मुरादाबाद,यू.पी.
डॉ सीमा विजयवर्गीय, अलवर, राजस्थान
डॉ भावना,मुज़फ्फ़रपुर,बिहार
डॉ नूतन सिंह, जमुई,बिहार
श्रीमती शुचि ‘भवि’,भिलाई, छतीसगढ़
श्री कालजयी घनश्याम, दिल्ली
शामिल हुए | शामे-ग़ज़ल का श्रीगणेश बज़्म के चेयर पर्सन रमेश ‘कँवल’ ने
सरस्वती वंदना से किया :
सरस्वती वंदना
हँसवाहिनी माँ की जय जय
वीणावादिनी जय हो
शुभ्रज्योत्स्ना भरो ह्रदय में
अन्धकार सब क्षय हो
पद्मासना श्वेत वस्त्रा माँ
तेरी जय जय जय हो
2
पुलकित ज्ञान ज्योति में
मेरी सद्बुद्धि का लय हो
ज्ञानदायिनी तव प्रकाश में
मेरा तिमिर विलय हो
कमल आसनी वागीश्वरी माँ
तेरी जय जय जय हो
3
तेरे चरणों की पावन रज
मस्तक मेरे सोहे
धूप दीप नैवैद्य सुधा से
अर्चन वंदन होवे
बुद्धि वर्धिनी अमृतमयी माँ
तेरी जय जय जय हो
4
ज्योतिर्मय शुभ जल प्रपात से
ज्ञान पुंज नित बरसे
नित उड़ान हो नयी सफलता
से प्रतिदिन मन हरसे
कृपा सिंधु माँ तेरी जय जय
तेरी जय जय जय हो
5
वरदहस्त हो मेरी कलम पर
मम सौभाग्य उदय हो
दुःख अभाव सबके हर लो माँ
इन पर विश्व विजय हो
ताल-छंद गति लय पर जय हो
माँ तेरी जय जय हो
हँसवाहिनी माँ की जय जय
वीणावादिनी जय हो
पद्मासना श्वेत वस्त्रा माँ
तेरी जय जय जय हो
इसके बाद दिल्ली से श्री कालजयी घनश्याम ने अपनी दो ग़ज़लें पढ़ीं |
‘ग़ज़ल’~~~❄
ये जालिम पेट तो घर पर कभी रहने नहीं देता।
मेरे मौला ये ऊँचा सर कभी रहने नहीं देता।
लगी है धुन कमाने की न देखा रात दिन मैंने,
सकूँ से क्यों मुझे ये ज़र कभी रहने नहीं देता।
बुढ़ापे में मिले धोखा जिन्हें अपने ही बच्चों से,
उन्हीं लोगों को जग खुशतर कभी रहने नहीं देता।
कभी हालात बदलेंगे गिरेंगे मुँह के बल इक दिन,
गुमां इंसाँ को ताक़तवर कभी रहने नहीं देता।
यकीं घनश्याम को रहमत पे इतना है कि सजदे में,
ख़ुदा उसको बरहना-सर कभी रहने नहीं देता।
अर्थ:-
बरहना-सर (uncovered head),
✍कालजयी ‘घनश्याम’ नई दिल्ली
दूसरी ग़ज़ल
आज वादों को अपने निभा दीजिए
आइए अब मेरा घर बसा दीजिए
पांव से सर तलक हो मेरा तर-ब-तर
प्यार की ऐसी गंगा बहा दीजिए
चुपके चुपके निगाहों से पीता रहूँ
एक मयख़ाना इसमें सजा दीजिए
डूबने में भी आए मज़ा जिस जगह
वो भॅंवर भी इसी में बना दीजिए
साथ ‘घनश्याम’ का हो मयस्सर सदा
ऐसी तरकीब कोई बता दीजिए
✍️ कालजयी घनश्याम
नई दिल्ली
🌷🌷🌷~🌷🌷~🌷
कालजयी घनश्याम के बाद जमुई,बिहार से डॉ नूतन सिंह ने अपनी दो ग़ज़लें पढ़ीं :
डॉ नूतन सिंह
मुँह क्या ज़रा सा खुल गया कल मेरे घाव का,
होने लगा है शहर में चर्चा रिसाव का।
लहजे पे अपने सब्र का पानी मैं डाल दूं,
दामन तेरा ना छू ले ये शोला अलाव का ।
परहेज़ है तुम्हें मेरे आंचल की छांव से,
अच्छा तो ढूंढ लो कोई रस्ता बचाव का।
ये कल की बात है कि ठहर कर हुई है झील,
देखा है दौर हमने नदी के बहाव का ।
पानी में हौसले को उतरने तो दीजिए,
ढांचा तो अब भी रेत पे रक्खा है नाव का।
‘नूतन’ में उसकी बात ना मानूँ तो क्या करूं ,
मेरा सनम है थोड़ा हठीले स्वभाव का।
दूसरी ग़ज़ल
जिंदगी नाचे थे इस तरह कभी हम तो नहीं ,
दिल में बज उट्ठे तेरी यादों के सरगम तो नहीं ।
डूबना है तो चलो डूब मरूँगी इनमें,
उनकी आँखें भी समंदर से कोई कम तो नहीं ।
मुद्दतों पहले मुझे छोड़ गए थे तन्हा,
मुद्दतों बाद ख़बर ली है कोई ग़म तो नहीं ।
दर्द देता है नज़र फेर के मुझको पहले,
देखता फिर है मेरी आँख कहीं नम तो नहीं
डॉ नूतन सिंह के बाद भिलाई,छतीसगढ़ से एलेक्ट्रोनिस में गोल्ड मेडलिस्ट श्रीमती शुचि भवि ने अपनी 2 ग़ज़लें सुनाई :
शुचि ‘भवि’ भिलाई छ. ग:
भला कोई किसी का है कहाँ सारे ज़माने में
लगे हैं सब के सब इक दूसरे को आज़माने में
हमेशा उसकी थी, उसकी हूँ, उसकी ही रहूँगी मैं
मज़ा आता है फिर भी जाने क्यों उसको जलाने में
कहानी लिख रहे हैं ग़ैर के बदनाम पह्लू पर
भले हों लाख वो बदनाम खुद अपने फ़साने में
भले ग़ुरबत में है लेकिन अजब दौलत कमाता है
दुआयें रोज़ मिलती हैं उसे पानी पिलाने में
सरलता से कहा है सच, लगे अच्छा बुरा जो भी
सुकूँ मिलना नहीं ‘भवि’ को कभी बातें बनाने में
दूसरी ग़ज़ल
ख़ुद से ख़ुद मिलने का ऐ दोस्त ख़याल अच्छा है
तुम मिले हो तो ये लगता है कि साल अच्छा है
लोग हैं जेह्न से वैसे तो बहुत अम्न पसंद
फिर भी कुछ लोगों को लगता है बवाल अच्छा है
दे नहीं पाते किसी तरह मेरे होंट जवाब
पूछती हैं तेरी ऑंखें वो सवाल अच्छा है
कैसे मैं कह दूँ कि क्या होगा मेरा मुस्तक़बिल
न तो माज़ी मेरा अच्छा था न हाल अच्छा है
कम से कम ‘भवि’ से मुलाक़ात तो हो जाती है
धूप में पाँवों के जलने का मलाल अच्छा है
—
शुचि ‘भवि’ भिलाई छ. ग.
बज़्म के चेयर पर्सन रमेश ‘कँवल’ ने शुचि ‘भवि’ के बाद मंच का सञ्चालन कर रही डॉ सीमा विजयवर्गीय को ग़ज़ल पढने की दावत दी
डॉ सीमा विजयवर्गीय
मेरी ग़ज़लों में बस प्रेम ही प्रेम है
इसके हर्फ़ों में बस प्रेम ही प्रेम है
उसने जन्नत बसा दी है मेरे लिए
इन फ़िज़ाओं में बस प्रेम ही प्रेम है
वो नज़र चाहे राधा कि मीरा की हो
इनकी नज़रों में बस प्रेम ही प्रेम है
अपनी दुनिया रचाती है माँ प्रेम से
उसकी अँखियों में बस प्रेम ही प्रेम है
याद रक्खेंगी सदियाँ सुनो ताज को
इसकी ईंटों में बस प्रेम ही प्रेम है
वो खिलाती रही राम को प्यार से
जूठे बेरों में बस प्रेम ही प्रेम है
तू ही चाहत मेरी, तू इबादत मेरी
मेरी साँसों में बस प्रेम ही प्रेम है
डॉ सीमा विजयवर्गीय
दूसरी ग़ज़ल
साथ सुख-दुख में निभातीं बेटियाँ
घर की इज़्ज़त को बढ़ातीं बेटियाँ
रौनक़ें इनकी बदौलत घर में हैं
बुलबुलों सी चहचहातीं बेटियाँ
माँ के हाथों का हुनर हैं सीखतीं
हाथ फिर माँ का बटातीं बेटियाँ
कह नहीं पाते पिता ग़म को मगर
आँख से ही भाँप जातीं बेटियाँ
माँ की परछाईं बनी रहतीं सदा
दर्द में आँसू बहातीं बेटियाँ
याद हर कमरे में अपनी छोड़कर
दो घरों को जगमगातीं बेटियाँ
लौटकर जब भी वो आतीं मायके
फिर से घर-भर को सजातीं बेटियाँ
डॉ सीमा विजयवर्गीय
अलवर, राजस्थान
इसके बाद मुज़फ्फ़रपुर से आभासी पटल पर जुडी डॉ भावना ने अपनी माँ को समर्पित एक ग़ज़ल सुनाई :
डॉ भावना, मुज़फ़्फ़रपुर
ग़ज़ल
मेरी माँ में बसी है शक्ल इक गुमनाम रानी की
कि जैसे झांकती अलबम में हो तस्वीर नानी की
भला हम भागते फिरते कहाँ तक राजधानी में
दिखे कुछ तो कहीं चिन्ता हमारे दाना-पानी की
न होते भूत और न ही कोई परियां यहाँ होती
गरीबी मानती है बात इस बिटिया सयानी की
खड़ाऊं पाँव में, हाथों में लाठी और छाते थे
हमारे दादा ऐसे थे,न ये बातें कहानी की
समय की बाँह में जिसको नहीं हम बाँध पायेंगे
सियासत कर रही है फिक्र वैसी आग-पानी की
कभी सूखे हुए फूलों से उनका दर्द तो पूछो
हमेशा बात करते हो महकती रात-रानी की
गज़ब वे लोग हैं जो जड़ में मट्ठा डालने बैठे
हमें तो फिक्र है पल- पल हमारी बागवानी की
डाॅ भावना
इसके बाद डॉ भावना ने अपनी वह ग़ज़ल सुनाई जिसे महाराष्ट्र के बहिणाबाई चौधरी उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय,जलगाँव के स्नातकोत्तर (एम्.ए.) के पाठ्यक्रम में शामिल कर लिया गया है :
जो करके बंद आँखों को यहाँ चुपचाप बैठे हैं
सियासत की सभी गहराइयों को नाप बैठे हैं
यही अपराध है उनका कि दोनों प्रेम कर बैठे
सज़ा जिनके लिए लेकर यहाँ के ‘खाप’ बैठे हैं !
जो केवल स्वार्थ में लिपटे हुए हैं पाँव से सर तक
वही तो देश की धरती पे बन अभिशाप बैठे हैं
वहाँ उम्मीद क्या होगी सुरक्षा की, बताएँ तो
जहाँ जब कुंडली मारे हुए ख़ुद आप बैठे हैं
न जाने कितने जन्मों का जिगर में बोझ को लेकर
लिए हाथों में माला को वो करने जाप बैठे हैं
सियासत के सिंहासन पर सभी हैं एक – ही जैसे
जहाँ थे वे कभी बैठे , वहाँ पे आप बैठे हैं
डाॅ भावना
डॉ भावना जी के बाद मुरादाबाद के शायर डॉ कृष्ण कुमार ‘नाज़’ ने अपनी दो ग़ज़लें पढ़ीं :
ग़ज़ल
इतना-सा लेखा-जोखा है, जीवन की अलमारी में
कुछ तो वक़्त सफ़र में गुज़रा, कुछ उसकी तैयारी में
एक ज़रा-सी नासमझी में, सब कुछ जलकर राख हुआ
शोला एक छिपा बैठा था, छोटी-सी चिंगारी में
कुछ आँसू, कुछ मुस्कानें हैं, कुछ शोहरत, कुछ गुमनामी
रंग-बिरंगे फूल खिले हैं, यादों की फुलवारी में
सिर्फ़ तुम्हारे प्यार की बाज़ी हार गए हम, वैसे तो-
जीता वो हर खेल, जो हमने खेला पहली पारी में
झूठी हैं सारी मुस्कानें, नक़ली है हर एक हँसी
आँसू ढकना सीख गए हम, पड़कर दुनियादारी में
उसकी एक छुअन से अब तक, ऐसे साँस महकती है
जैसे पावन गंध बसी हो, पूजा की अग्यारी में
निश्छल मुस्कानों का अपना, एक अलग दर्शन है ‘नाज़’
सातों सुर मिलकर हँसते हैं, बच्चे की किलकारी में
– डा. कृष्णकुमार ‘नाज़’
ग़ज़ल
अब तो बस दिल को बहरहाल ये समझाना है
तेरी चौखट के सिवा और कहाँ जाना है
ये जो दुनिया है, भला किसकी हुई है अब तक
सर हमें भी इसी दीवार से टकराना है
तू मुसाफ़िर है, तेरा फ़र्ज़ है चलते रहना
पाँव के छालों से फिर काहे का घबराना है
पोंछकर अश्क हँसो और हँसो, ख़ूब हँसो
ये भी क़ुदरत ही का बख़्शा हुआ नज़राना है
मुस्कुराहट है मचलते हुए अहसास का नाम
अश्क, अहसास की शिद्दत का छलक जाना है
मेरे काँधे को छुअन कोई हुई है महसूस
ये तेरा हाथ है या फिर तेरा दस्ताना है
ज़िंदगी ख़ुद ही इक उलझी हुई गुत्थी है ‘नाज़’
आख़िरी साँस तक इसको हमें सुलझाना है
-डॉ. कृष्णकुमार ‘नाज़’
अंत में रमेश कंवल ग़ज़लसरा हुए
ग़ज़ल 1
बदतर ही हालात किया
उनको जब आयात किया
सूने सूने दिन गुज़रे
आँखों में ही रात किया
सुन्दर विश्व बनाने को
रामायण निर्यात किया
तुलसी की चौपाई ने
हर रिश्ता विख्यात किया
दास कबीर की वाणी ने
रुढ़ी रिवाजों पे घात किया
सूर जायसी मीरा ने
प्रेम सुधा बरसात किया
स्पीकर सब उतर गए लो
प्रदूषण खैरात किया
ध्वनि सीमा कम करने को
कब कोई आफ़ात किया
र्म सनातन वही ‘कँवल’
जिस ने मन इस्पात किया
(डॉ के.के. नाज़ की नज्र)
मुझसे मिल के वो क्यों इतना गदगद हुआ
क्या मैं उसकी मसर्रत की सरहद हुआ
फ़ायदा झुक के मिलने से बेहद हुआ
सबके क़द से बड़ा मेरा ही क़द हुआ
मसअले नौजवानों के गुमसुम रहे
हिंदू मुस्लिम पे हर मुख विशारद हुआ
ताज तेजोमहालय न कहलाए क्यों
उसके हर कक्ष से बुत बरामद हुआ
संस्कृति धर्म संग्राम प्रारंभ है
बंद तुष्टीकरण हो ये मक़सद हुआ
हमने पैग़ाम अम्नो-अमां का दिया
फिर भी सरहद पे आतंक बेहद हुआ
माँ से बरकत, हिफाज़त, मुहब्बत ‘कँवल’
बंदापरवर का तमग़ा नदारद हुआ
डॉ कृष्ण कुमार नाज़ के धन्यवाद ज्ञापन के साथ शामे-ग़ज़ल संपन्न हुआ
रिपोर्ट : रमेश ‘कँवल’